मानस में परशुरामजी के अपनी माँ को मारने का प्रसंग आया है, जो इस प्रकार है। एक बार परशुरामजी की माँ रेणुका पानी लेने नदी पर गईं और वहाँ एक सुंदर गंधर्व को तैरते देखकर उस पर मोहित हो गईं। वे भूल गईं कि उनके पति जमदग्नि पूजन के पानी का इंतज़ार कर रहे हैं। जब वे लौटकर आईं, तो जमदग्नि ने जान लिया कि पराए मर्द पर मोहित होने के कारण उनकी पत्नी को देर हुई है। इस पर गुस्सा होकर उन्होंने कुल्हाड़ी देकर अपने पाँचों पुत्रों को एक-एक करके आदेश दिया कि वे अपनी माँ की हत्या कर दें। जैसे-जैसे पुत्र इंकार करते गए, जमदग्नि उन्हें पत्थर में बदलते गए। जब बाक़ी चारों पुत्र पत्थर की शिला में बदल गए, तो सबसे छोटे पुत्र परशुराम ने अपनी माँ को कुल्हाड़ी से मार डाला। जमदग्नि ने जब इस पर प्रसन्न होकर वरदान मांगने को कहा, तो परशुरामजी ने यह वरदान माँगा कि उनकी माँ और भाई दोबारा जीवित हो जाएँ और उन्हें यह घटना याद न रहे।
इस प्रसंग का भली-भाँति विवेचन करना महत्वपूर्ण है। पहली नज़र में तो किसी स्त्री की हत्या और वह भी माँ की हत्या जघन्य अपराध है, लेकिन परशुरामजी यह भी जानते थे कि अगर उन्होंने पिता की आज्ञा का पालन नहीं किया, तो वे उन्हें पत्थर का बना देंगे। दूसरी ओर, वे यह भी जानते थे कि अगर वे अपने पिता की आज्ञा का पालन करेंगे, तो पिताजी प्रसन्न होकर उन्हें वरदान देंगे और वे अपनी माँ के जीवित होने का वरदान माँग लेंगे। यही सोच-विचार कर परशुरामजी ने अपनी माँ की हत्या की थी। इस तरह अपनी चतुराई और विचारशीलता से परशुरामजी ने अपनी माँ को पिता के क्रोध से बचा लिया और किसी तरह का नुक़सान भी नहीं होने दिया।
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