जब भरतजी रामचंद्रजी को लौटाने के लिए वन में जा रहे थे, तो सेना और अयोध्यावासी भी उनके साथ थे, क्योंकि सभी श्रीरामजी के दर्शन करना चाहते थे। जब निषादराज ने भरतजी को सेना सहित आते देखा, तो उन्होंने सोचा कि भरतजी के मन में कपट भाव हो सकता है। यदि मन में कुटिलता न होती, तो सेना साथ क्यों लाते? भरतजी शायद लक्ष्मणजी
और रामचंद्रजी को मारकर सुख से निष्कंटक राज्य करना चाहते होंगे। यह सोचकर निषादराज ने अपने लोगों से कहा कि सारी नावें डुबा दो, घाट रोक लो और भरतजी की सेना से जूझकर मरने के लिए तैयार हो जाओ। भरतजी से मुकाबला मैं करूँगा और जीतेजी उन्हें गंगा पार नहीं करने दूंगा।
निषादराज ने जब लड़ाई का ढोल बजाने को कहा, तो बाईं ओर छींक हुई। शकुन विचारने वालों ने कहा कि जीत होगी, लेकिन तभी एक बूढ़े ने शकुन विचारकर कहा कि भरतजी से मिल लीजिए, उनसे लड़ाई नहीं होगी, क्योंकि शकुन कह रहा है कि विरोध नहीं है। निषादराज गुह ने उसकी बात मानते हुए कहा कि बिना सोच-विचार के जल्दबाजी में कोई काम नहीं करना चाहिए, अन्यथा मूर्ख लोगों को पछताना पड़ता है।
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