कहानी - संत
सूरदास जी ने ये तय कर लिया था कि अब मुझे जीवन का समापन करना है। वे अंतिम समय
में सांस ले रहे थे। उनके रोम-रोम में श्रीकृष्ण बसे थे।
सूरदास जी के कई भक्त उनके आसपास इकट्ठे हो चुके थे।
सभी अपने प्रिय गुरु को संसार से जाता हुआ देखना चाहते थे। उसी समय सूरदास जी के
गुरु भाई चतुर्भुज जी ने कहा, 'आपने अपने जीवन
में श्रीकृष्ण जी के लिए खूब लिखा, आपने
श्रीकृष्ण को जिया है, लेकिन हमारे गुरु वल्लभाचार्य जी के लिए कुछ नहीं
लिखा।'
सूरदास जी ने कहा, 'लिख
तो सकता था उनके लिए, लेकिन मेरे लिए श्रीकृष्ण और वल्लभाचार्य जी में कोई
अंतर ही नहीं था। मैं जब श्रीकृष्ण पर लिखता, वल्लभाचार्य
जी की छवि मेरे मन में आ जाती। मैं ये भेद देख ही नहीं सका।' इसके बाद जाते-जाते सूरदास जी ने कुछ पक्तियां गुरु के लिए
भी लिख दी थीं।
सीख - सूरदास जी ने हमें समझाया है कि गुरु और परमात्मा में कोई
भेद नहीं है। जब किसी को गुरु बनाएं तो ये मानकर चलें कि गुरु का एक हाथ परमात्मा
से जुड़ा है और दूसरा हाथ उन्होंने शिष्य के लिए स्वतंत्र छोड़ रखा है। सीधे
परमात्मा तक कोई पहुंच नहीं सकता है। गुरु माध्यम हैं और कभी-कभी माध्यम ही मंजिल
बन जाता है। कभी भी किसी को गुरु बनाएं तो उसमें परमात्मा की छवि ही देखें।