धनुष तोड़कर सीताजी से ब्याह करने के लिए बहुत से राजा उतावले थे। वे सोच रहे थे कि वे सबसे पहले कोशिश कर लें, ताकि कोई दूसरा उनसे पहले यह काम न कर ले। लेकिन जब ये उतावले राजा पूरी शक्ति से धनुष को पकड़ते थे, तो वह उठता भी नहीं था। जब बहुत से राजा हार गए और कोई अन्य राजा कोशिश करने के लिए नहीं आया, तो जनकजी निराश होकर बोले, 'बीर बिहीन मही मैं जानी।' यानी पृथ्वी वीरों से खाली हो गई। ऐसा लगता है जैसे ब्रह्माजी ने सीताजी का विवाह लिखा ही नहीं। यदि प्रण छोड़ता हूँ, तो पुण्य जाता है। यदि मैं जानता कि पृथ्वी वीरों से शून्य है, तो प्रण करके हँसी का पात्र न बनता। तब विश्वामित्रजी ने अत्यंत प्रेम भरी वाणी में रामचंद्रजी को शिवजी का धनुष तोड़ने का आदेश दिया। सभी नगरवासियों ने देवताओं से प्रार्थना की कि यदि हमारे पुण्यों का कुछ भी प्रभाव हो, तो रामचंद्रजी यह धनुष कमल की डंडी की तरह तोड़ दें। सीताजी निवेदन कर रही थीं, हे गौरी माता, मुझ पर स्नेह करके धनुष के भारीपन को कम कर दीजिए। गणेशजी, मैंने आज ही के लिए आपकी सेवा की थी। धनुष का भारीपन कम कर दीजिए। अंत में सीताजी ने कहा कि यदि मेरा स्नेह सच्चा है, तो रामचंद्रजी मुझे अवश्य ही मिलेंगे। 'जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू।।'