मंथरा कैकेयी की मुँहलगी दासी थी। जब रामचंद्रजी का राजतिलक होने वाला था, तो देवताओं ने सोचा कि अगर राम अयोध्या के राजा बन गए, तो राक्षसों का विनाश कौन करेगा और देवताओं के दुख दूर कैसे होंगे, इसलिए उन्होंने देवी सरस्वती से अनुरोध किया कि वे कोई ऐसा उपाय करें, जिससे रामचंद्रजी का राजतिलक न हो पाए और वे राज्य त्यागकर वन को चले जाएँ, ताकि देवताओं का कार्य सिद्ध हो। देवी सरस्वती ने देवताओं के लाभ के लिए कैकेयी की कमअक्ल दासी मंथरा की बुद्धि फेर बुद्धि भ्रष्ट होने के बाद मंथरा ने रानी कैकेयी से कहा कि तुम्हारा सगा पुत्र भरत तो ननिहाल में है और राजा ने उसे चालाकी से वहाँ भेजा है, ताकि यहाँ चुपके से रामचंद्रजी को राजगद्दी दे दी जाए। कौसल्या तुमसे जलती है, क्योंकि राजा का तुम पर विशेष प्रेम है। इस राज्याभिषेक के बाद तुम्हें रामचंद्रजी की माँ कौसल्या की दासी बनकर रहना पड़ेगा। जब कैकेयी ने कहा कि वे जीतेजी किसी की दासी नहीं बनेंगी, तो मंथरा ने उन्हें एक उपाय बताया। वह बोली कि तुम राजा से वो दो वरदान माँग लो, जो तुमने अब तक नहीं माँगे हैं: एक तो भरत का राजतिलक और दूसरा राम को चौदह वर्ष का वनवास।
मंथरा को अपना सबसे बड़ा हितैषी मानते हुए कैकेयी कोपभवन में चली गई और उसने राजा से ये दो वरदान माँग लिए कि भरत को राजा बनाओ और राम को वनवास भेजो। राजा वरदान देने के लिए विवश थे, क्योंकि 'रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई।।' दशरथजी ने कहा कि भरत को राजा बनाने में कोई समस्या नहीं है, क्योंकि रामचंद्रजी को राज्य का लोभ नहीं है, लेकिन राम के वनवास वाला वरदान मत माँगो, नहीं तो मैं जी नहीं पाऊँगा। लेकिन कैकेयी अपनी ज़िद पर अड़ी रही, क्योंकि देवी-देवताओं की यही इच्छा थी।