यह कथा रामचरित मानस में नहीं है, लेकिन बहुत प्रचलित है। जब राजा दशरथ देव-दानव युद्ध में देवताओं की मदद करने गए थे, तो साथ में रानी कैकेयी को भी ले गए थे, जो उन्हें अति प्रिय थीं। युद्ध में दशरथजी के रथ का धुरा टूट गया और संबरासुर का तीर राजा के कवच को भेदकर उनके सीने में लगा। कैकेयी उस समय दशरथजी का रथ चला रही थीं और वे रथ को युद्ध से दूर ले गईं। उस समय कैकेयी ने धुरे में अपना बायाँ हाथ लगाकर रथ को टूटने से बचाया और दायें हाथ से रथ चलाती रहीं। एक ऋषि के वरदान के कारण कैकेयी का बायाँ हाथ वज्र की तरह मज़बूत था। दशरथजी कैकेयी की वीरता देखकर बहुत खुश हुए। उन्होंने प्रसन्न होकर कैकेयी से कहा कि वे कोई भी दो वरदान माँग लें। कैकेयी ने कहा कि वे बाद में माँगेंगी।