आध्यात्मिक देवी कर्माबाई जी : कर्माबाई के जीवन का सम्पूर्ण परिचय :

आध्यात्मिक देवी कर्माबाई जी : कर्माबाई के जीवन का सम्पूर्ण परिचय :

आध्यात्मिक देवी कर्माबाई जी : कर्माबाई के जीवन का सम्पूर्ण परिचय :



करमा बाई का जीवन परिचय :-राजस्थान के नागौर जिले की मकराना तहसील के कालवा गांव में जन्मी आध्यात्मिक देवी कर्माबाई जी का जन्म कालवा गाँव के किसान जीवनराम जी डूडी के घर माता रतनी देवी जी की कोख से भादवा बदी एकं अर्थात 20 अगस्त 1615 ई. को हुआ।कर्मा बाई के पिता चौधरी जीवणराम जी डूडी ईश्वर में बहुत आस्था रखने वाले व्यक्ति थे। उनका नित-नियम था कि जब तक भगवान कृष्ण की मूर्ति को जलपान नहीं कराते तब तक स्वयं भी जलपान नहीं ग्रहण करते थे। उन्होने ईश्वर प्राप्ति के लिए अनेक तीर्थों का भ्रमण किया था।

करमा बाई ने पर्ची में जन्म स्थान मरूप्रदेश का आनंदपुर बताया है जो कालवा ही है। उसके जन्म पर मूसला धार बरसात हुई थी। जिससे गाँव में खुशियाँ फ़ैल गयी थी। करमा बाई पैदा होते ही हंसी थी जो एक चमत्कार था। एक बूढी दाई ने तो कहा कि यह बालिका ईश्वर का अवतार है.

करमा बाई का मंदिर :- राजस्थान के नागौर जिले की मकराना तहसील के कालवा गांव में 



करमा बाई का विवाह:- करमा बाई का विवाह सोऊ गोत्र में गाँव मोरेड़ वाया बिदियाद (नागौर) कर दिया गया था। परन्तु थोड़े ही समय में वह विधवा हो गयी और आजीवन बाल विधवा के रूप में ही अपना जीवन भगवान की भक्ति में व्यतीत किया।

स्व.मनसुख जी रणवा के अनुसार,करमा बाई का विवाह छोटी उम्र में ही अलवर जिले के गढ़ी मामोड गाँव में साहू गोत्र के लिखमा राम के साथ कर दिया। कुछ ही समय बाद पति की मृत्यु हो गयी। करम बाई उस समय कालवा में ही थी। उनका अंतिम संस्कार करने के लिए वह ससुराल गाढ़ी मामोड चली गयी। वह घर और खेत का सारा काम करती थी। अतिथियों की खूब आवभगत करती थी। कालवा ही नहीं आस-पड़ौस के गाँवों में उसकी प्रशंसा होने लगी।

भगवान के प्रति समर्पित :-जीवनराम जी स्वयं भी धार्मिक पुरुष थे और वे अपनी बेटी से बहुत स्नेह रखते थे। इसी माहौल में करमा 13 साल की हो गई। एक बार जीवनराम जी को कार्तिक पूर्णिमा स्नान के लिए पुष्कर जाना था। उनकी पत्नी भी उनके साथ जा रही थी। वे करमा को भी साथ ले जाना चाहते थे लेकिन एक समस्या आ गई। उनकी अनुपस्थिति में भगवान को भोग कौन लगाता? इसलिए उन्होंने करमा को यह जिम्मेदारी सौंपी और बोले- बेटी, हम दोनों पुष्कर स्नान के लिए जा रहे हैं। तुम सुबह भगवान को भोग लगाना और उसके बाद ही भोजन करना।

अगले दिन करमा ने क्या किया करमा ने यह जिम्मेदारी सहर्ष स्वीकार कर ली। इधर मां-पिता तीर्थ यात्रा के लिए रवाना हुए, उधर घर पर करमा ने सुबह स्नान आदि कर बाजरे का खीचड़ा बनाया। उसमें खूब घी डाला और पूजा के लिए भगवान की मूर्ति के पास आ गई। थाली सामने रखी और हाथ जोड़कर बोली, हे प्रभु, भूख लगे तब भोग लगा लेना, तब तक मैं घर के और काम कर लेती हूं।

इसके बाद वह काम में जुट गई। बीच-बीच में वह थाली देखने आती लेकिन भगवान ने खीचड़ा नहीं खाया। थाली वैसी ही रखी हुई थी जैसी करमा कुछ देर पहले छोड़कर गई थी।

काफी देर होने के बाद भी जब भगवान ने भोग नहीं लगाया तो उसे चिंता हुई। क्या खीचड़े में घी की कमी रह गई या थोड़ा और मीठा होना चाहिए था? उसने और गुड़ व घी मिलाया और वहीं बैठ गई। लेकिन भगवान ने फिर भी नहीं खाया। तब उसने कहा, हे प्रभु आप भोग लगा लीजिए। मां-बापू पुष्कर नहाने गए हैं।

आपको जिमाने की जिम्मेदारी मुझे दी गई है। इसलिए आपके भोग लगाने के बाद ही मैं खाना खाऊंगी। लेकिन भगवान फिर भी नहीं आए। फिर करमा उनसे शिकायत करने लगी...

वह बोली, मां-बापू जब जिमाते हैं तो भोग लगा लेते हो और आज इतनी देर कर दी! खुद भी भूखे बैठे हो और मुझे भूखी रखोगे। लेकिन भगवान फिर भी नहीं आए और करमा का खीचड़ा वहीं रखा हुआ था। करमा ने और इंतजार किया।

फिर बोली- तुम्हें मेरे हाथ से ही खीचड़ा खाना होगा। मां-बापू को आने में कई दिन लग जाएंगे। तुम जीम लो, वरना मैं भी भूखी ही रह जाऊंगी।

करमा का खीचड़ा खाने आए कन्हैया दोपहर बीत गई, शाम होने लगी थी, लेकिन करमा ने कुछ भी नहीं खाया। आखिरकार कृष्ण को आना ही पड़ा और बोले, करमा, तुमने पर्दा तो नहीं किया! ऐसे भोग कैसे लगाऊं? यह सुनकर करमा ने अपनी ओढऩी की ओट की और उसी की छाया में कृष्ण ने खीचड़े का भोग लगाया। थाली पूरी खाली हो गई।

करमा बोली, भगवान इतनी-सी बात थी तो पहले बता देते। खुद भी भूखे रहे और मुझे भी भूखी रखा। इसके बाद करमा ने खीचड़ा खाया। अब तो रोज करमा खीचड़ा बनाती है और कृष्ण उसका भोग लगाने आते।

जब तक करमा के मां-पिता तीर्थ-यात्रा पर रहे, रोज यह सिलसिला चलता रहा। कुछ दिनों बाद दोनों पुष्कर से घर लौटे। देखा, जाते समय तो मटका पूरा गुड़ से भरा था। अब खाली कैसे? उन्होंने करमा को बुलाया और पूछा, बेटी, गुड़ कहां है?

करमा ने बताया कि रोज भगवान कृष्ण उसके पास आते और खीचड़े का भोग लगाते। कहीं मिठास कम न हो जाए, इसलिए खीचड़े में गुड़ कुछ ज्यादा डाल दिया। उसने पहले दिन हुई परेशानी के बारे में भी बता दिया।

यह सुनकर माता-पिता चकित रह गए। जिस ईश्वर के लिए वे तीर्थ-यात्रा करने गए थे, जिसे लोग न जाने कहां-कहां ढूंढ़ रहे हैं, उसे उनकी बेटी ने अपने हाथ से खीचड़ा जिमाया!

यह कैसे संभव है? उन्हें चिंता भी हुई कि बेटी बावली तो नहीं हो गई है। उन्होंने मन को दिलासा देने के लिए कहा शायद करमा ही पूरा गुड़ खा गई होगी। इस पर करमा ने कहा, अगर आपको यकीन नहीं है तो कल देख लीजिए। मैं खुद भगवान को भोग लगाऊंगी।

दूसरे दिन करमा ने खीचड़ा बनाया। गुड़ और घी डालकर थाली मंदिर में रख दी। ओढऩी से पर्दा किया और प्रार्थना की - हे ईश्वर, मेरे सत्य की रक्षा करना अब आपके हाथ में ही है।

भक्त की पुकार सुनकर भगवान का सिंहासन डोल गया और कृष्ण खीचड़ा खाने आ गए। जीवनराम और उनकी पत्नी यह दृश्य देखकर विस्मित थे। उसी दिन से करमा बाई जगत में विख्यात हो गईं।

जीवन के अंतिम दिनों में करमा बाई भगवान जगन्नाथ की नगरी चली गईं और वहीं रहने लगीं। वहां रोज भगवान को खीचड़े का भोग लगातीं और भगवान उनके हाथ से खीचड़ा खाने आते। आज भी भगवान जगन्नाथ को खीचड़े का ही भोग लगाया जाता है।

दूसरे दिन भोली करमाँ ने खिचड़ी बनाकर भगवान् को भोग लगाया तो भगवान ने ग्रहण नहीं किया। तब करमा बाई ने सोचा कि शायद परदा न होने के कारण भगवान भोग नहीं लगा रहे हैं। उसने अपने धाबलिये (घाघरे) का परदा किया और मूंह दूसरी तरफ फेर लिया, ताकि भगवान् भोग लगा सके। फिर भी नतीजा कुछ न निकला। उसने भगवान से फिर कहा, "भगवान् आप भोजन नहीं करते तो मैं भी नहीं खाऊँगी।" करमा उस दिन भूखी रह गयी।

उसने दूसरे दिन फिर खिचड़ी बनाई और घाघरे का परदा करके भगवान के फिर से भोग लगाया। दूसरे दिन भी कोई नतीजा नहीं निकला। तब उसने कहा कि यदि आप नहीं खायेंगे तो मैं न तो खिचड़ी खाऊँगी और न भोग लगाऊंगी। भूखी रहकर प्राण त्याग दूँगी। इस तरह तीन दिन बीत गए। तीसरे दिन भगवान् ने करमाँ को स्वप्न में कहा , "उठ ! जल्दी से खिचड़ी बना, मुझे बड़ी भूख लगी है। "

करमा बाई हडबड़ा कर उठी, जल्दी से खिचड़ी पकाई और परदा कर के भगवान के भोग लगाया। थोड़ी देर में देखा कि भगवान सारी खिचड़ी खा गए हैं। करमा बाई का खुसी का ठिकाना न रहा। अब वह नित्य प्रति भगवान को खिचड़े का भोग लगाने लगी और बालरूप में भगवान आकर उसकी खिचडी खाने लगे। यह करमा बाई के भक्ति की चरम सीमा थी।

करमा बाई के घर भगवान द्वारा स्वयं आकर भोजन करने की बात दिन दूनी रात चौगुनी चारों तरफ फ़ैल गयी।

नाभादास कृत भक्तमाल में करमा बाई के सम्बन्ध में इस प्रसंग का उल्लेख मिलता है। चारण ब्रह्मदास दादूपंथी विरचित 'भगत माल' में भी इसका उल्लेख इस प्रकार है-

जिमिया खीच करमां घिरे ज्वार का

बडम धिन द्वारिका तणा वासी

करमा बाई की प्रसिद्धि: इस तरह करमा बाई के प्रेम में बंधे भगवान जगन्नाथ को भी प्रतिदिन सुबह खिचड़ी खाने जाना पड़ता था। अत: प्रभु जगन्नाथ के पण्डितों ने इस समस्या के समाधान के लिए राजभोग से पहले करमा बाई के नाम से खिचड़े का भोग प्रतिदिन जगन्नाथपुरी के मंदिर में लगाने लगे ताकि भगवान को जाना न पड़े। आज भी जगन्नाथपुरी के मंदिर में करमा बाई की प्रीत का यह ज्वलंत उदहारण देखने को मिलता है जहाँ भगवान के मंदिर में करमा बाई का भी मंदिर है और उसके खीचड़े का भोग प्रतिदिन भगवान को लगता है। परचीकार ने लिखा है -

करमां के घर जीमता, जो न पतीजो लोक।

देखो जगन्नाथ में, अज हूँ भोग।

मलुक को टुकरो बंटे, वटे कबीर की पाण।

करमांबाई रो खीचड़ो, भोग लगे भगवान।।

करमा बाई की भक्ति का प्रतीक प्रसिद्ध भजन



थाळी भरके ल्याई रे खीचड़ो, ऊपर घी की बाटकी। जीमो म्हारा श्याम धणी, जीमावै बेटी जाट की।।

बाबो म्हारो गांव गयो है, कुण जाणै कद आवैलो। बाबा कै भरोसै सांवरा, भूखो ही रह ज्यावैलो।।

आज जीमावूं तन्नैं खीचड़ो, काल राबड़ी छाछ की। जीमो म्हारा ...

बार-बार मंदिर नै जड़ती, बार-बार पट खोलती। जीमै कयां कोनी सांवरा, करड़ी-करड़ी बोलती।।

तूं जीमै जद मैं जीमूं, मानूं न कोई लाट की। जीमो म्हारा...

पड़दो भूल गई रे सांवरिया, पड़दो फेर लगायो जी। धाबळिया कै ओलै, श्याम खीचड़ो खायो जी।।

भोळा भगतां सूं सांवरा, अतरी कांई आंट जी। जीमो म्हारा...

भक्त हो तो करमा जैसी, सांवरियो घर आयो जी। भाई लोहाकर, हरख-हरख जस गायो जी।।

सांचो प्रेम प्रभु में हो तो, मुरती बोलै काठ की। जीमो म्हारा...

करमांबाई की भक्ति की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी। करमांबाई ने अपनी पूरी जिंदगी भगवान की भक्ति में व्यतीत कर दी। करमाबाई की भक्ति का परिणाम है कि आज भी राजस्थान में उनकी वात्सल्य भक्ति के किस्से लोगों की जुबान पर हैं। महिलायें कृष्ण मंदिरों में करमांबाई के खीचड़ले से सम्बंधित भजन भक्ति भाव से गाती हैं।

इस तरह करमाबाई अपनी अनूठी वात्सल्य भक्ति के कारण इस संसार में प्रसिद्धि प्राप्त कर संवत 1691 (25.7.1634 ई.) में एक दिन परमात्मा में विलीन हो गयी। वह भगवान में आस्था रखने वालों के लिए एक सन्देश छोड़ गयी कि बाह्य शुद्धता के स्थान पर आत्मा की शुद्धता तथा भगवान से सच्ची प्रीत से प्रभु की प्राप्ति सम्भव है।

कर्मा बाई के बारे में एक अन्य प्रसंग-

 "भक्तिमति कर्माबाई"

भगवान श्रीकृष्ण की परम उपासक कर्मा बाई जी भगवान को बचपन से ही पुत्र रूप में भजती थीं। ठाकुर जी के बाल रुप से वह रोज ऐसे बातें करतीं जैसे बिहारी जी उनके पुत्र हों, और उनके घर में ही वास करते हों। एक दिन कर्मा बाई की इच्छा हुई कि बिहारी जी को फल-मेवे की जगह अपने हाथ से कुछ बनाकर खिलाऊँ। उन्होंने प्रभु को अपनी इच्छा बतलायी। भगवान तो भक्तों के लिए सर्वथा प्रस्तुत हैं। गोपाल बोले - "माँ ! जो भी बनाया हो वही खिला दो, बहुत भूख लगी है।" कर्मा बाई ने खिचड़ी बनाई थी। ठाकुर जी को खिचड़ी खाने को दे दी। प्रभु बड़े चाव से खिचड़ी खाने लगे और कर्मा बाई ये सोचकर भगवान को पंखा झलने लगीं कि कहीं गर्म खिचड़ी से मेरे ठाकुर जी का मुँह ना जल जाये । संसार को अपने मुख में समाने वाले भगवान को कर्मा बाई एक माता की तरह पंखा कर रही हैं और भगवान भक्त की भावना में भाव विभोर हो रहे हैं। भक्त वत्सल भगवान ने कहा - "माँ ! मुझे तो खिचड़ी बहुत अच्छी लगी। मेरे लिए आप रोज खिचड़ी ही पकाया करें। मैं तो यही खाऊँगा।" अब तो कर्मा बाई जी रोज सुबह उठतीं और सबसे पहले खिचड़ी बनातीं । बिहारी जी भी सुबह-सवेरे दौड़े आते । आते ही कहते - माँ ! जल्दी से मेरी प्रिय खिचड़ी लाओ।" प्रतिदिन का यही क्रम बन गया। भगवान सुबह-सुबह आते, भोग लगाते और फिर चले जाते।

एक बार एक महात्मा कर्मा बाई के पास आया। महात्मा ने उन्हें सुबह-सुबह खिचड़ी बनाते देखा तो नाराज होकर कहा - "माता जी, आप यह क्या कर रही हो ? सबसे पहले नहा धोकर पूजा-पाठ करनी चाहिए। लेकिन आपको तो पेट की चिन्ता सताने लगती है।" कर्मा बाई बोलीं - "क्या करुँ ? महाराज जी ! संसार जिस भगवान की पूजा-अर्चना कर रहा होता है, वही सुबह-सुबह भूखे आ जाते हैं। उनके लिए ही तो खिचड़ी बनाती हूँ।" महात्मा ने सोचा कि शायद कर्मा बाई की बुद्धि फिर गई है। यह तो ऐसे बोल रही है, जैसे भगवान इसकी बनाई खिचड़ी के ही भूखे बैठे हुए हों। महात्मा कर्मा बाई को समझाने लगे - "माता जी, तुम भगवान को अशुद्ध कर रही हो। सुबह स्नान के बाद पहले रसोई की सफाई करो। फिर भगवान के लिए भोग बनाओ।"

अगले दिन कर्मा बाई ने ऐसा ही किया। जैसे ही सुबह हुई भगवान आये और बोले - "माँ ! मैं आ गया हूँ, खिचड़ी लाओ।" कर्मा बाई ने कहा - "प्रभु ! अभी में स्नान कर रही हूँ, थोड़ा रुको। थोड़ी देर बाद भगवान ने फिर आवाज लगाई। जल्दी करो, माँ ! मेरे मन्दिर के पट खुल जायेंगे, मुझे जाना है।" वह फिर बोलीं - "अभी मैं सफाई कर रही हूँ, प्रभु !" भगवान सोचने लगे कि आज माँ को क्या हो गया है ? ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ। भगवान ने झटपट करके जल्दी-जल्दी खिचड़ी खायी। आज खिचड़ी में भी रोज वाले भाव का स्वाद नहीं था। जल्दी-जल्दी में भगवान बिना पानी पिये ही भागे। बाहर महात्मा को देखा तो समझ गये - "अच्छा, तो यह बात है। मेरी माँ को यह पट्टी इसी ने पढ़ायी है।"

ठाकुर जी के मन्दिर के पुजारी ने जैसे ही पट खोले तो देखा भगवान के मुख पर खिचड़ी लगी हुई है। पुजारी बोले - "प्रभु जी ! ये खिचड़ी आप के मुख पर कैसे लग गयी है ?" भगवान ने कहा - "पुजारी जी, आप माँ कर्मा बाई जी के घर जाओ और जो महात्मा उनके यहाँ ठहरे हुए हैं, उनको समझाओ। उसने देखो मेरी माँ को कैसी पट्टी पढाई है ?" पुजारी ने महात्मा जी से जाकर सारी बात कही। यह सुनकर महात्मा जी घबराए और तुरन्त कर्मा बाई के पास जाकर कहा - "माता जी ! माफ़ करो, ये नियम धर्म तो हम सन्तों के लिये हैं। आप तो जैसे पहले खिचड़ी बनाती हो, वैसे ही बनायें। ठाकुर जी खिचड़ी खाते रहेंगे।"

एक दिन आया जब कर्मा बाई के प्राण छूट गए। उस दिन पुजारी ने पट खोले तो देखा - भगवान की आँखों में आँसूं हैं। प्रभु रो रहे हैं। पुजारी ने रोने का कारण पूछा, तो भगवान बोले - "पुजारी जी, आज मेरी माँ कर्मा बाई इस लोक को छोड़कर मेरे निज लोक को विदा हो गई है। अब मुझे कौन खिचड़ी बनाकर खिलाएगा ?" पुजारी ने कहा - "प्रभु जी ! आपको माँ की कमी महसूस नहीं होने देंगे। आज के बाद आपको सबसे पहले खिचड़ी का भोग ही लगेगा।" इस तरह आज भी जगन्नाथ भगवान को खिचड़ी का भोग लगाया जाता है।

भगवान और उनके भक्तों की ये अमर कथायें अटूट आस्था और विश्वास का प्रतीक हैं। ये कथायें प्रभु प्रेम के स्नेह को दरसाने के लिए अस्तित्व में आयीं हैं। इन कथाओं के माध्यम से भक्ति के रस को चखते हुए आनन्द के सरोवर में डुबकी लगाएं। ईश्वर की शक्ति के आगे तर्कशीलता भी नतमस्तक हो जाती है। तभी तो चिकित्सा विज्ञान के लोग भी कहते हैं - "दवा से ज्यादा, दुआ काम आएगी।"

करमा बाई अपने भोलेपन की भक्ति के बल वह आज भी ऐसी औरतों के लिए उदाहरण बनी हुई है जो आचार-विचार के बिना भगवान में सच्ची प्रीति रखती हैं। करमांबाई वास्तव में सच्ची प्रीति का प्रतीक थी, जैसे कि परचीकार ने लिखा है -

करमां कुल में जाटणी, नरतन को अवतार।

प्रेम प्रीत की पूतली, सिरजी सिरजणहार।।

मारवाड़ या यों कहें कि राजस्थान के कोने कोने में ऐसी अनेक विभूतियां हैं जिनके बारे में आमजन अनभिज्ञ है। हमें उन्हें पढ़ना होगा। हमें उन्हें जानना होगा ।

जय कर्माबाई जी





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