कबीर
आए हैं तो जायेंगे राजा रंक फ़कीर।
एक सिंघासन चढ़ चले एक बंधे जंजीर। ।
व्याख्या –
कबीरदास का नाम समाजसुधारकों में बड़े आदर के साथ लिया जाता है। उन्होंने विभिन्न आडंबरों और कर्मकांडों को मिथ्या साबित किया। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि कर्म किया जाए। अर्थात अपने जन्म के उद्देश्य को पूरा किया जाए , ना कि विभिन्न आडंबरों और कर्मकांडों में फंसकर यहां का दुख भोगा जाए। वह कहते हैं कि मृत्यु सत्य है चाहे राजा हो या फकीर हो या एक बंदीगृह का एक साधारण आदमी हो। मरना अर्थात मृत्यु तो सभी के लिए समान है।
चाहे वह राजा हो या फकीर हो बस फर्क इतना है कि एक सिंहासन पर बैठे हुए जाता है और एक भिक्षाटन करते हुए चाहे एक बंदीगृह में बंदी बने बने।
अर्थात कबीर दास कहते हैं मृत्यु को सत्य मानकर अपने कर्म को सुधारते हुए अपना जीवन सफल बनाना चाहिए।
कस्तूरी कुंडली मृग बसे , मृग फिरे वन माहि।
ऐसे घट घट राम है , दुनिया जानत नाही
व्याख्या –
इस कबीर के दोहे का अर्थ यह है की कबीरदास यहां अज्ञानता का वर्णन करते हैं। वह कहतें हाँ कि मनुष्य में किस प्रकार से अज्ञानता के वशीभूत है। स्वयं के अंदर ईश्वर के होते हुए भी बाहर यहां-वहां , तीर्थ पर ईश्वर को ढूंढते हैं। कबीरदास बताते हैं कि किस प्रकार एक कस्तूरी की गंध जो हिरण की नाभि (कुंडली) में बास करती है। कस्तूरी एक प्रकार की सुगंध है वह हिरण की नाभि में वास करती है और हिरण जगह-जगह ढूंढता फिरता है कि यह खुशबू कहां से आ रही है।
इस खोज में वह वन – वन भटकते-भटकते मर जाता है , मगर उस कस्तूरी की गंध को नहीं ढूंढ पाता।
उसी प्रकार मानव भी घट – घट राम को ढूंढते रहते हैं मगर अपने अंदर कभी राम को नहीं ढूंढते। राम का वास तो प्रत्येक मानव में है फिर भी मानव यहां-वहां मंदिर में मस्जिद में तीर्थ में ढूंढते रहते हैं।
धीरे – धीरे रे मना , धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा , ऋतु आए फल होय। ।
व्याख्या –
उपर्युक्त पंक्ति में कबीरदास कहते हैं कि किसी भी कार्य को धीरे-धीरे वह संयम भाव से करना चाहिए। संयम व एकाग्रता से किया गया कार्य ही सफल होता है। जिस प्रकार माली सौ – सौ घड़ों से पेड़ों को सींचता है मगर उसके इस प्रकार के परिश्रम से फल की प्राप्ति नहीं होती। ऋतु के आने से ही अर्थात मौसम परिवर्तन से ही पेड़ों पर फल आता है।
अर्थात संयम हुआ धैर्य की आवश्यकता है।
दोस पराए देखि करि , चला हसंत हसंत।
अपने याद न आवई , जिनका आदि न अंत। ।
व्याख्या –
कबीर कहते हैं कि प्राय दोस्त को देखकर हंसना नहीं चाहिए , बल्कि अपने भीतर व्याप्त बुराइयों को देख कर उस पर चिंतन मनन करना चाहिए। अपने बुराइयों को सुधारना चाहिए। किस प्रकार एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के दोष को देख कर हंसता है , मुस्कुराता है। जबकि उसमें खुद बुराइयों का ढेर है , और उसके स्वयं के बुराई का कोई आदि और अंत नहीं है।