दीपावली से जुड़े रोचक तथ्य एवं जानकारी -
ओडिशा की एक ब्लॉगर हैं निष्ठा रंजन दास। तीन-चार साल पहले उन्होंने
दीवाली पर एक ब्लॉग लिखा था, जिसमें बताया था कि आरंभ में दीवाली का संबंध
प्रजनन और कृषि नियंत्रण से था। प्राचीन काल में किसान अपनी फसल को आश्विन माह के
कीट प्रजनन से बचाने के लिए अरंडी के तेल के दीये जलाते थे और मंदिरों में
भजन-कीर्तन किया करते थे। रात के पहले पहर में आयोजित इन कीर्तन सभाओं में
आने-जाने वाले किसान मशालें लेकर खेतों की पगडंडियों से गुजरते थे। इन दीयों की लौ
और मशालों की लपट की ओर आकर्षित होकर अधिकांश कीट-पतंगे खत्म हो जाते थे। इस तरह
पारिस्थितिक संतुलन बना रहता था और फसलें सुरक्षित रहती थीं। निष्ठा ने अपने इस
ब्लॉग में कुछ अमेरिकी अध्ययनकर्ताओं का भी जिक्र किया है, जिन्होंने
इसे कीट प्रजनन के नियंत्रण का सबसे अच्छा पारंपरिक देशज उपाय कहा है।
दुनिया भर में अधिकांश पर्व-त्यौहार कृषि-आधारित हैं। ये स्थानीय
मौसम से भी जुड़े होते हैं। भारत के अधिकांश पारंपरिक त्यौहार भी इसका अपवाद नहीं
हैं। दीपावली भी ऐसा ही एक पर्व है जो ख्ररीफ फसल की कटाई के बाद मनाया जाता है।
खास बात यह कि भले ही इस पर्व को द्विजों के ग्रंथों में उल्लेखित कथा-कहानियों से
जोड़ दिया गया हो लेकिन इसका संबंध बहुजनों से है।
मुझे स्मरण है कि 1978 में, जब मेरी उम्र
करीब पांच साल थी, दीपावली के दिन मैं अपने पिता से प्रश्न कर बैठा कि हम यह त्यौहार
क्यों मनाते हैं। तब पिताजी ने सहज रूप से इसका जवाब दिया कि “बेटा, दीपावली
के आसपास धान की फसल या तो पकने को होती है या पक चुकी होती है। इस समय एक खास तरह
का कीड़ा, जिसे माहूर भी कहते हैं, फसल को नुकसान
पहुंचाता है। ये कीड़े आग की ओर आकर्षित होते हैं। इसलिए कृषकों ने एक दिन यानी
कार्तिक अमावस्या को सामूहिक रूप से दिए जलाने का फैसला किया ताकि ज्यादा से ज्यादा
कीड़े मर जाएं और फसल को कीड़ों से बचाया जा सके। इसलिए यह उत्सव अमावस्या को
मनाया जाता है। यह एकमात्र ऐसा उत्सव है जो अमावस्या को मनाया जाता है। शेष उत्सव
पूर्णिमा को मनाये जाते हैं।”