राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड कक्षा 10
: हिंदी पाठ्यपुस्तक आधारित महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर,क्षितिज भाग -2 (काव्य – खंड) ,अध्याय -02 राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद
तुलसीदास
जीवन परिचय-
जन्म – 1589 विक्रम संवत् (जन्म संवत् 1589
(सन् 1532) में बाँदा जिले के राजापुर ग्राम में)
जन्म स्थान – राजापुर, बांदा, उ०प्र०
पिता – आत्माराम दुबे
माता – हुलसी
यह सरयूपारीण ब्राह्मण थे।
पालन-पोषण
मुनिया नामक सेविका ने किया।
गुरु
महात्मा -नरहरिदास
विवाह-
रत्नावली नामक गुणवती स्त्री से
हुआ।
तुलसीदास
जी ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘रामचरितमानस’ की रचना अयोध्या में प्रारम्भ की किन्तु बाद में यह काशी के निवासी
हो गए। श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को इनका देहावसान हो गया।
मृत्यु – 1680 विक्रम
संवत्
साहित्यिक परिचय-तुलसीदास भक्त कवि थे। आपकी
भक्ति दास्यभाव की थी। आपकी कीर्ति का आधार हिन्दू धर्म का लोकप्रिय ग्रन्थ
रामचरितमानस है। आपने इस ग्रन्थ द्वारा समाज के सभी वर्गों में समन्वय बनाने की
चेष्टा की है। इस ग्रन्थ में भगवान राम के जीवन चरित का वर्णन है। तुलसीदास जी ने
अवधी और ब्रजभाषा दोनों में सुन्दर रचनाएँ की हैं।
रचनाएँ- प्रमुख रचनाएँ-रामचरितमानस, विनयपत्रिका, दोहावली, कवितावली, गीतावली, बरवै रामायण, पार्वतीमंगल, वैराग्य संदीपनी रामाज्ञाप्रश्न, जानक़ीमंगल, रामलला नहछू आदि हैं।
पाठ परिचय
‘लक्ष्मण परशुराम संवाद’ नामक काव्यांश आपके महाकाव्य रामचरितमानस से संकलित
है। महाराज जनक द्वारा आयोजित ‘धनुष यग्य ’ में राम ने शिव धनुष को भंग कर
दिया। मुनि परशुराम यह समाचार पाकर अत्यन्त क्रोध से भरे हुए वहाँ आए। उनकी दर्प
और क्रोध से भरी बातों के कारण उनका लक्ष्मण से विवाद हो गया। परशुराम ने लक्ष्मण
को बहुत कठोर वचन कहे और लक्ष्मण ने भी उन पर व्यंग्य बाण चलाए। अंत में राम की
विनयशीलता और मुनि विश्वामित्र के समझाने पर परशुराम का क्रोध शान्त हुआ। इस अंश
में कवि ने व्यंग्यमयी और रोचक शैली में घटना को प्रस्तुत किया है।
परीक्षा उपयोगी महत्वपूर्ण
सप्रसंग व्याख्या
बिहसि लखनु बोले मृदबानी। अहो मुनीसु महा
भटमानी॥
पुनि पुनि मोहि
देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फँकि पहारू॥
इहाँ कुम्हड़बतिया
कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि डरि जाहीं॥
देखि कुठारु सरासन
बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥
भृगुसुत समुझि
जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी ॥
सुर महिसुर हरिजन
अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई॥
बधे पापु अपकीरति
हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारे॥
कोटि कुलिस सम
बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥
जो बिलोकि अनुचित
कहेउँ, छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष
भृगुबंसमनि, बोले गिरा गभीर॥
संदर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश
कविवर तुलसीदास की प्रसिद्ध रचना ‘रामचरितमानस’ के बालकाण्ड से उद्धृत है। इस अंश में शिव का धनुष तोड़े जाने से
रुष्ट परशुराम का लक्ष्मण से विवाद प्रस्तुत हुआ है। लक्ष्मण हँस-हँस कर परशुराम पर व्यंग्य कस रहे हैं और परशुराम भड़क-भड़ककर लक्ष्मण को गम्भीर परिणामों की धमकियाँ दे रहे हैं।
व्याख्या-लक्ष्मण ने हँसते हुए कोमल वाणी में
कहा – अहा महामुनि ! आपको तो निश्चय ही महान योद्धा मानना पड़ेगा अथवा आप तो निश्चय ही
माने हुए महान् योद्धा हैं। आप बार-बार मुझे अपना फरसा
दिखाकरे डराना चाह रहे हैं। आप तो फेंक से पहाड़ को उड़ा देना चाहते हैं। लेकिन
ध्यान रखिए कि हम भी कोई छुईमुई के पौधे नहीं हैं जो आपकी तर्जनी उँगली दिखाने से
सिकुड़ (डर) जाएँगे। हम आपके इस गर्जन-तर्जन से डरने वाले
नहीं हैं। आपको क्षत्रियों की भाँति फरसा, धनुष-बाण आदि अस्त्र-शस्त्र धारण किए देखकर मैंने अभिमानपूर्वक कुछ बातें कह दीं, पर अब ज्ञात हुआ कि आप महर्षि भृगु के
वंशज हैं। आपका जनेऊ बता रहा है कि आप ब्राह्मण हैं। इसी कारण आपकी सारी उचित-अनुचित बातों को मैं क्रोध को रोककर सुन रहा हूँ। हमारे वंश में
देवता, ब्राह्मण, भक्तजन और गांय पर वीरता दिखाने की
परंपरा नहीं है। क्योंकि इन्हें मारने पर पाप लगता है।
और इनसे हार जाने पर अपयश मिलता है। आप ब्राह्मण होने के नाते
पूज्य और अबध्य हैं, अतः आप हमें मारेंगे तो भी हम आपके
चरणों में ही पड़ेंगे। आपकी तो वाणी ही करोड़ों वज्रों के समान कठोरे है फिर आप ये
धनुष-बाण और कुठार व्यर्थ धारण करते हैं।
हे मुनिवर ! आपके वेश को देखकर मैंने अनुचित बातें
कह दीं उन्हें क्षमा कर दीजिए, क्योंकि आप तो बड़े धैर्यवान और क्षमाशील हैं। लक्ष्मण की ये
व्यंग्यमयी बातें सुनकर भृगुवंश में श्रेष्ठ परशुराम क्रुद्ध होकर गंभीर वाणी में
कहने लगे।
विशेष-
(1) काव्यांश की भाषा साहित्यिक अवधी है।
कवि ने प्रसंग को प्रभावशाली और रोचक बनाने के लिए सटीक शब्दों का चयन किया है।
कुम्हड़बतिया’ जैसे आंचलिक शब्द का भी प्रयोग हुआ
है।
(2) शैली व्यंग्य और उपहासपूर्ण है।
(3) ‘मुनीसु महा’, ‘कछु कहा’, ‘कोटि कुलिस’ में अनुप्रास अलंकार है तथा ‘कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा’ में उपमा अलंकार है।
(4) ‘वीर’ तथा ‘रौद्र’ रस की सफल व्यंजना हुई है।
(5) दोनों ही पात्र शील की सीमाओं से बाहर
जा रहे हैं।
कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल काले बस निजकुल घालकु॥
भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस
अबुध असंकू॥
काल कवलु होइहि छन माहीं। कहऊँ पुकारि
खोरि मोहि नाहीं॥
तुम्ह हटकहु जौं चहहु उबारा। कहि
प्रतापु बलु रोषु हमारा॥
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा।
तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक
भाँति बहु बरनी॥
नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस
रोकि दुसह दुख सहहू॥
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न
पावहु सोभा॥
सूर समर करनी करहिं, कहिन जनावहिं आपु॥
विद्यमान रन पाइ रिपु, कायर कथहिं प्रतापु॥
संदर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश
कविवर तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ महाकाव्य के बालकाण्ड से संकलित है। इस अंश में लक्ष्मण के
अपमानजनक व्यंग्य वचनों से क्रोधित परशुराम विश्वामित्र से उन्हें समझाने के लिए
कह रहे हैं तथा लक्ष्मण उन्हें और उकसा रहे हैं।
व्याख्या–परशुराम ने विश्वामित्र से कहा-हे विश्वामित्र! यह बालक लक्ष्मण
बुद्धिहीन और कुटिल स्वभाव वाला है। यह काल के वश में होकर अपने कुल का भी नाश
कराएगा। यह सूर्यवंश रूपी चन्द्रमा में कलंक के समान है। यह अत्यन्त स्वच्छन्द, मूर्ख और निडर है। यह क्षणभर में मेरे
हाथों मारा जाएगा। मैं पुकार कर कह रहा हूँ कि फिर मुझे दोष मत देना। यदि आप इसे
बचाना चाहते हैं तो इसे हमारे प्रताप, बल और क्रोध का परिचय कराके रोक लीजिए। यह सुनकर लक्ष्मण ने कहा-हे मुनीश्वर! आपके रहते हुए आपके
यश का वर्णन और कौन अच्छी प्रकार कर सकता है। आपने अब तक अपने मुँह से अपने
कार्यों की खूब प्रशंसा की है फिर भी यदि आपको संतोष न हुआ हो तो और कुछ कहिए। आप
अपने क्रोध को मन में दबाकर असहनीय दुःख मत सहिए। आप तो वीरता का व्रत धारण करने
वाले हैं, धैर्यवान हैं और क्षुब्ध न होने वाले
हैं। आप इस प्रकार गाली देते शोभा नहीं पाते हैं। शूरवीर युद्ध में खुद वीरता का
प्रदर्शन किया करते हैं वे अपने मुँह से अपनी प्रशंसा नहीं करते। कायर लोग ही
युद्ध में शत्रु को सामने देखकर अपनी वीरता की डींग हाँका करते हैं।
विशेष-
(1) पद्यांश की भाषा साहित्यिक, प्रवाहपूर्ण और पात्रों तथा प्रसंग के
अनुरूप है।
(2) शैली व्यंग्य और उपहास से परिपूर्ण
है।
(3) वीर और रौद्र रस की रोचक व्यंजना हुई
है।
(4) ‘कुटिल काल’, ‘निपट निरंकुस’, ‘रिस रोकि’ तथा ‘करनी करहिं कहि में अनुप्रास अलंकार है। ‘भानु बंस राकेस कलंकू’ में रूपक तथा उपमा अलंकार है।
कहेउ लखन मुनि सील तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा॥
माता पितहि उरिन भए नीकें। गुरु रिनु
रहा सोचु बड़ जीकें॥
सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए
ब्याज बड़ बाढ़ा।
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं
थैली खोली।
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय
सब सभा पुकारा॥
भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र
बिचारि बचउँ नृपद्रोही॥
मिले न, कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े॥
अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति
सयनहिं लखनु नेवारे॥
लखन उतरे आहुति सरिस, भृगुबर कोपु कृसानु॥
बढ़त देखि जल सम बचन, बोले रघुकुल भानु॥
संदर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश कवि तुलसीदास जी के द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ नामक महाकाव्य के बालकाण्ड से लिया
गया है। इस प्रसंग में लक्ष्मण परशुराम के बड़बोलेपन पर व्यंग्य करके उन्हें चिढ़ा
रहे हैं। उनके सीमा से बाहर, कठोर वचनों को लोग अनुचित बता रहे हैं और राम उन्हें संकेत से चुप
हो जाने को कह रहे हैं।
व्याख्या-लक्ष्मण ने परशुराम से कहा-आप कितने शील स्वभाव वाले हैं, यह बात सारा संसार जानता है। माता-पिता के ऋण से तो आप बड़ी अच्छी तरह मुक्त हो गए लेकिन गुरु का ऋण
बाकी रह जाने से आपके मन में बंड़ी चिंता थी। आपने उस ऋण को हमारे माथे मढ़ दिया।
दिन भी बहुत हो गए इसलिए इस ऋण का ब्याज भी काफी बढ़ गया होगा। अब आप किसी हिसाब
लगाने वाले को बुला लीजिए। आपका जितना ऋण निकलेगा मैं तुरंत थैली खोलकर चुका
हूँगा। लक्ष्मण के इन कटु व्यंग्य वचनों को सुनकर परशुराम ने अपना फरसा सँभाल
लिया। वह लक्ष्मण पर प्रहार करने को उद्यत हो गए। यह देख सारी सभा हाहाकार करने
लगी। इतने पर भी लक्ष्मण चुप नहीं हुए और बोले- हे भृगुवंशी! आप मुझे फरसा
दिखाकर डराना चाहते हैं। अरे क्षत्रियों के शत्रु ! आप ब्राह्मण हैं इसीलिए मैं आपसे युद्ध करने से बच रहा हूँ। आपका
अभी तक युद्ध में अच्छे योद्धाओं से पाला नहीं पड़ा। आप घर में ही वीर बने हुए
हैं। लक्ष्मण को अभद्र वचन कहते सुनकर सभी लोग उनके व्यवहार की निन्दा करने लगे तब
राम ने नेत्रों के संकेत से लक्ष्मण को अधिक बोलने से मना किया। परशुराम की
क्रोधरूपी अग्नि को लक्ष्मण के उत्तर आहुति के समान भड़का रहे थे। तब क्रोधाग्नि
को बढ़ते देखकर राम ने जल के समान शीतल वचन बोलकर परशुराम के क्रोध को शांत करने
का प्रयास किया॥
विशेष-
(1) काव्यांश की भाषा साहित्यिक और
प्रवाहपूर्ण है। माथे काढ़ना, घर के ही बड़े होना आदि मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से भाषा
भावों को व्यक्त करने में समर्थ है। पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग है।
(2) छंद चौपाई तथा दोहा हैं।
(3) रस वीर और रौद्र हैं।
(4) ‘ब्याज बड़ बाढ़ा’, ‘बिप्र बिचारि बचउँ’ में अनुप्रास’हाय हाय’ में पुनरुक्ति प्रकाश, ‘लखन उतर आहुति सरिस’, ‘जल सम वचन’ में उपमा तथा रघुकुल भानु’ में रूपक अलंकार है। ‘मात पितहिं उरिन भए नीके’ में वक्रोक्ति अलंकार है।
परीक्षा उपयोगी महत्वपूर्ण
प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.लक्ष्मण ने
वीर योद्धा की क्या-क्या विशेषताएँ बताईं ?
उत्तर-इस
पंक्ति का भाव है-स्वयं सवेरा वसंत रूपी शिशु को जगाने के लिए गुलाब रूपी चुटकी
बजाती है। आशय यह है कि वसंत ऋतु में प्रात:काल गुलाब के फूल खिल उठते हैं।
प्रश्न 2.धनुष टूटने
पर लक्ष्मण किन तर्कों के आधार पर राम को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयास कर रहे थे?
उत्तर-धनुष
टूट जाने पर लक्ष्मण इसका जिम्मेदार राम को नहीं मान रहे थे। उनका मानना था कि
धनुष बहुत पुराना और कमज़ोर था जो राम के छूते ही टूट गया था। राम ने तो इसे नया
समझकर उठाया था। ऐसा पुराना धनुष टूटने से हमारा क्या लाभ। इन तर्को द्वारा वे
परशुराम के समक्ष राम को निर्दोष सिद्ध कर रहे थे।
प्रश्न 3.लक्ष्मण के वाक्चातुर्य
पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
उत्तर-धनुष
टूटने से क्रोधित परशुराम जब राम और लक्ष्मण को डराने-धमकाने का प्रयास करते हैं
तो लक्ष्मण अपने वाक्चातुर्य का परिचय देते हैं और उनके बड़बोलेपन को हँस-मुसकराकर
व्यंग्योक्तियों से हवा में उड़ा देते हैं। वे ऐसे सूक्ति बाण चलाते हैं कि
परशुराम का क्रोध भड़क उठता है। वे फिर कोमल शब्दों के सहारे उन्हें गंभीरता से
बात करने के लिए विवश हो जाते हैं।
प्रश्न 4.लक्ष्मण और श्रीराम के वचनों में मुख्य अंतर क्या था?
उत्तर-लक्ष्मण और श्रीराम के वचनों
में मुख्य अंतर यह था कि लक्ष्मण के वचनों में उद्दंडता, व्यंग्यात्मकता तथा उग्रता का मेल था जो परशुराम के क्रोध को यज्ञ
की आहुति हवन सामग्री के समान भड़का देते थे। इसके विपरीत श्रीराम के वचनों में
विनम्रता और विनयशीलता का भाव था जो शीतल जल के समान प्रभावकारी थे जिससे परशुराम
की क्रोधाग्नि शांत हो गई।
प्रश्न 5.‘राम-लक्ष्मण-परशुराम
संवाद’ पाठ में निहित संदेश स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ नामक पाठ में निहित संदेश यह है कि हमें क्रोध
करने से बचना चाहिए। यह हमारे बुधि विवेक का नाश कर देता है। क्रोधी व्यक्ति ऐसे
कार्य करता है जिससे वह उपहास का पात्र बन जाता है। हमें सदैव विनम्र, शांत एवं कोमल व्यवहार करना चाहिए। ऐसे व्यवहार
से हमारे बिगड़े काम भी बन जाते हैं तथा हमें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।
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