बगडावत कथा -25
वहां से भांगीजी को साथ लेकर नारायण का काफिला मंगरोप में आकर
रुकता है जहां साडू माता और हीरा दासी ने ११ वर्ष पहले बिलोना बिलोया था और बची
हुई छाछ नीचे गिरा दी थी। माता साडू नारायण से कहती है कि नारायण अब अपनी धरती आने
वाली है उससे पहले आप पीपलदे के साथ फेरे पूरे करो नहीं तो कलयुग में तीन फेरे
लेने की प्रथा हो जायेगी। वहां देवनारायण पीपलदे के साथ बाकि के फेरे लेकर उसे
अपने बाये अंग लेते हैं। वहां पीपलदे के पिताजी धार के राजा भी आते हैं और पीपलदे
का डायजा (दहेज) हथलेवा भरते हैं। जिसकी जितनी श्रद्धा होती है उतना पीपलदे की झोली
में डालते हैं। कोई १ मोहर, कोई २ मोहरें, कोई ५ मोहरें और कोई १० मोहरें पीललदे की झोली में डालते हैं। वहां
एक भील होता है, उसके पास उस वक्त पीपलदे को देने के लिए कुछ भी नहीं होता है।
इसलिए वो जंगल में से बेल पत्र पेड़ से एक बिला तोड़ कर लाता है और पीपलदे की झोली
में डाल देता है। ये बिला भगवान देख लेते हैं और पीपलदे की झोली में से उठा लेते
हैं। पीपलदे जी पूछती है कि भगवान आपने इन सब चीजों में से इसे ही क्यो उठाया ? नारायण कहते हैं पीपलदे जी ये बिला है, इसमें बिला-बिली पल रहे हैं। आप इसे
रुई में लपेट कर सावधानी से रख दे। जैसे मां के गर्भ में बच्चा पलता हैं वैसे ही
उस बिले में देवनारायण पीपलदे के बेटा-बेटी (बिला-बिली) बड़े होते हैं। मंगरोप से डेरा उठता है और काफिला आगे बढ़ता है और
रास्ते में माण्डल आकर रुकता हैं। जहां भगवान और छोछू भाट दोनों साथ-साथ तालाब की पाल पर
घूमते हैं। छोछू भाट नारायण को बताते हैं कि यह तालाब आपके दादा परदादा ने बनाया
है। देवनारायण कहते है कि तालाब तो काफी बड़ा बनाया है और अपने नीलागर घोड़े को
तालाब की पाल पर पानी पिलाने के लिये लाते हैं। नीलागर घोड़ा तालाब का पानी नहीं
पीता है। देवनारायण भाट जी से पूछते हैं कि क्या बात है, इस तालाब का पानी घोड़ा
नहीं पी रहा हैं ? छोछू भाट कहता है कि इस
तालाब में आपके पूर्वज माण्डल जी की समाधी है और भाट जी सारी बात विस्तार से बताते
हैं कि बिसलदेव जी के डर से माण्डल जी अपने घोड़े के साथ पानी में उतर गये। तब से
इस तालाब का नांगल नहीं हुआ है। भगवान देवनारायण वहीं डेरे डालने को कहते हैं और
तालाब का नांगल करवाते हैं। ब्राह्मणों को भोजन करवाते हैं। हवन, यज्ञ, दान और १०० गायों का दान
करते हैं। माता साडू और हीरा दासी तालाब पर बने माण्डल जी के मन्दारे पर चढ़ कर
अपने गांव की ओर देखती है और हीरा से कहती है कि हीरा अपना गांव तो उजाड़ पड़ा है, वीरान हो गया है। वहां
जाकर कैसे रहेगें ? वहां तो भूत-प्रेतों का वास हो गया
होगा। भगवान देवनारायण का काफिला माण्डल से आगे बढ़ता है। रास्ते में दो गांव पड़ते हैं। कावंल्या और
जीवंल्यां। ये दोनों गांव बगड़ावतों की दासियों के नाम पर बसे हुए थे। माता साडू
देवनारायण से यहीं रुकने को कहती है तो देवनारायण कहते हैं माताजी यहां का तो हम
पानी भी नहीं पीयेगें। यह तो हमारे दासियों का गांव है।अब तो ये सवारी गोठां जाकर
ही रुकेगी और वहीं अपनी नई बस्ती खेड़ा चौसला बसायेगें। माता साडू कहती है गोठां तो
उजड़ गया हैं। वहां तो राण का राजा हमें आराम से नहीं रहने देगा। देवनारायण कहते
हैं ये बात आप मेरे ऊपर छोड़ दीजिये। देवनारायण का काफिला गोठां में आकर रुकता है
और वहीं देवनारायण अपना नया गांव खैड़ा चौसला बसाते हैं और उसकी नींव पूनम (पूर्णिमा) के दिन रखते हैं।उधर
बिजौरी कांजरी सारे संसार में घूमते-फिरते खेल दिखाते हुए बगड़ावतों से बड़ा दानवीर ढूंढती रहती हैं। जब
कांगरु देश में वह अपना करतब दिखा रही होती है तो उड़ती हुई पंखणियों से बात करती
है। बिजौरी गिरजणियों से पूछती है, ए गिरजणियां कहां जा रही हो, मुझे बगड़ावतों के हाल बताती जाओ ? गिरजणियां कहती है
नियाजी ने बहुत जोर का भारत करयो है, हमको उसी ने धपाया है (पेट भर दिया है)। बिजौरी को विश्वास नहीं होता है और गिरजणियों से कहती है कि तुम झूंठ बोलती है। फिर बिजौरी अपने
साथियों से कहती है अब बांस उखाड़ो, सभी सामान इकट्ठा करो और बाबा रुपनाथ के पास चलो। हम जिनके गुणगान
कर रहे हैं वो बगड़ावत अब नहीं रहे। बिजौरी कांजरी बाबा रुपनाथ के पास रुपाहेली
जाकर बगड़ावतों के बारे में उनसे पूछती है। बाबाजी बताते है कि २३ बगड़ावत भाई रावजी
के साथ युद्ध में काम आ गये हैं. २४वां तेजाजी पाटन में है, तू उसके पास चली जा।
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