भारत में प्राचीन काल में गुरु शिष्य संबंध को विशेष दर्जा प्राप्त रहा है। यह संबंध रक्त और वैवाहिक संबंधों के अतिरिक्त एक विशिष्ट संबंध रहा है। भारतीय वांग्यमय में इसको मित्रता और रक्त संबंधों से भी बढ़ कर माना गया है।
महाभारत में द्रोण
और रामायण में गुरु वशिष्ठ का उल्लेख बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इन दोनो
महाकाव्य और गाथाओं के बाद गुरु शिष्य परंपरा का उल्लेख ठीक इसी तरह बगड़ावत लोक
गाथा में भी मिलता है।
रामायण और महाभारत में गुरु शिष्य संबंध :
रामायण में गुरु विश्वामित्र का दायित्व शिष्य के शिक्षण के बाद
वैवाहिक उत्तरदायित्व निर्वहन तक उल्लेखित है। तदुपरांत सीता के निर्वासन काल में
आश्रय दे कर लव और कुश को भी शिक्षा देने तक मिलता है। शिष्य का दायित्व शिक्षा
प्राप्ति काल के बाद तक रहा है।
महाभारत में गुरु द्रोण का उल्लेख सकारात्मक और नकारात्मक रूप दोनो
में मिलता है। नकारात्मक रूप में एकलव्य के अंगूठा दान में लेने और राज्य के प्रति निष्ठा
निभाने के रूप में और सकारात्मक रूप में राज्य के लिए युद्ध करने तक
उल्लेख मिलता है।
श्री कृष्ण के
गुरु संदीपनी का उल्लेख भी है। इसी प्रकार जैन परम्परा में तीर्थंकर, नाथ संप्रदाय, मत्श्येंद्र नाथ
अर्थात महेंद्र नाथ- गोरखनाथ , रैदास - मीरां बाई ,शिवाजी- समर्थ
गुरु रामदास इत्यादि उदाहरणों में गुरु शिष्य परंपरा और सम्पूर्ण संबंधों को समझा
जा सकता है।
बगड़ावत
लोक कथा में गुरु शिष्य परंपरा :
लोक कथाओं में
गुरु शिष्य परंपरा गायन परंपरा के रूप में लोक जनजीवन में प्रचलित रही है। इनमे
गुरु बालक नाथ - रामदेव, रामदेव -डाली बाई लोक आख्यान, बगड़ावत लोक कथाएं
प्रमुख हैं। लोक जीवन में गुरु की अनिवार्यता भक्ति,शक्ति और ज्ञान
तीनों के लिए मानी गई है। गुरु को मार्गदर्शक और शिष्य के प्रति माता पिता के
बराबर जिम्मेदार माना गया है।
बगड़ावत चौबीस भाई
थे, जिनका गुरु रूप
नाथ था। बगड़ावत प्रत्येक कार्य करने से पहले अपने गुरु से अनुमति लेते थे। वे सभी
गुरु रुपनाथ के अनन्य भक्त थे। अपने परिजनों की राय को दरकिनार कर सकते थे लेकिन
अपने गुरु की आज्ञा और राय को नहीं।
एक बार जब जयमती
को सवाई भोज की पत्नी के रूप में राण भिनाय के सोलंकी राजा दुर्जनसाल की पत्नी को
अपहरण कर ले आया था, क्योंकि जयमती ने अपने पति के रूप में सवाई भोज को चुना और
वचन लिया था, कि वो अपने साथ तत्काल न ले जाएं तो कोई बात नहीं लेकिन छः
महीने बाद लेने जरूर आयेंगे।
अपने वादे के
अनुरूप वो रानी जयमती को ले आए लेकिन असल समस्या अपने गुरु रुपनाथ से स्वीकृति
लेने की थी। अगर गुरु मना कर देता तो उनके लिए आज्ञा की अवहेलना
नामुमकिन थी।
रानी को जब
बगड़ावत ले आए तब राजा दुर्जनशाल ने बगड़ावत भाईयो के बजाए उनके गुरु रूप नाथ से
संपर्क कर रानी वापस दिलाने के लिए कहा,लेकिन गुरु रुपनाथ
ने कहा "रानी मेरे चेले पर रीझ कर आई है उसे नही लौटाया जा सकता है।"
इस प्रसंग से प्रतीत होता है कि गुरु का व्यक्तित्व, चरित्र और कृतित्व विराट होता था जिससे प्रभावशाली शिष्यों पर भी प्रभाव डाल पाता था। गुरु हर हाल में समर्पित शिष्यों के साथ होता था।
गुरु शिष्य संबंध औपचारिक अथवा अनौपचारिक
समाजशास्त्रीय
दृष्टि से देखा जाए तो यह परंपरा विशेष मानवीय संबंधों के संबंध में भारतीय समाज
में अद्वितीय है।रक्त, विवाह और काल्पनिक नातेदारी के अतिरिक्त यह विशिष्ट श्रेणी
है।
आधुनिक काल में ये
संबंध औपचारिक श्रेणी में आते हैं। ये संबंध शिक्षक छात्र के कहे जाते हैं ,शिक्षक का
अभिप्राय गुरु से भिन्न है। ये संबंध एक पक्षीय और व्यवसायिक हैं। एक अन्य दृष्टि
से ये संबंध पूर्व में प्राथमिक संबंधों में शामिल रहे हैं जबकि वर्तमान में
द्वितीयक श्रेणी में आते हैं।
आधुनिक काल में
गुरु शिष्य संबंध स्पष्ट रूप से व्यावसायिक हैं। भविष्य में संभव है स्कूल जैसी
संस्थाएं अलग स्वरूप लें,तब ये संबंध और अधिक कमजोर और अनुबंध आधारित होंगे।
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