सिसक रही धरती
दुनियाभर में लोग अब ग्लोबल वार्मिंग से होने वाले खतरों को पहचानने
लगे हैं। जल, जंगल और जमीन सब इस ग्लोबल वार्मिंग की
चपेट में हैं। जो प्रकृति हमारे लिए कभी पूजनीय थी, वह आज हमारे उपभोग की पूर्ति का सामान बनकर रह गयी है। गुजरते समय के
साथ प्रकृति के प्रति हमारी नैतिकता और मूल्यों में बड़ा बदलाव आया है।
इसकी बानगी हाल में आए स्विट्जरलैंड बनाम क्लिमासेनियोरिनन श्वेइज
केस में यूरोप की शीर्ष मानवाधिकार अदालत द्वारा दिए गए फैसले में देखने को मिली।
क्लिमासेनियोरिनन श्वेइज स्विट्जरलैंड में 64 वर्ष से अधिक उम्र की 2000 से ज़्यादा महिलाओं का एक समूह है जिसने जलवायु संरक्षण पर सरकार
द्वारा ध्यान नहीं दिए जाने को लेकर सरकार पर केस किया था। क्लिमासेनियोरिनन की
स्थापना साल 2016 में तब हुई जब कुछ
रिटायर्ड महिलाओं ने देखा कि जलवायु संकट को लेकर सरकार कुछ खास ध्यान नहीं दे रही
है। इसे देखते हुए इन महिलाओं ने अपनी यूनियन बनायी और सरकार को पर्यावरण को लेकर
जवाबदेह बनाने के मिशन पर काम करना शुरू कर दिया। और सरकार को कोर्ट तक खींचकर ले
गयी, शुरुआत में उन्हें कई असफलताओं का सामना
करना पड़ा परंतु वो पीछे नहीं हटीं। कोर्ट में अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा, ''सरकार ने जलवायु परिवर्तन को लेकर
पर्याप्त काम नहीं किए, जिससे उनके सामने लू से मरने का संकट
पैदा हो गया है और उम्र व लिंग की वजह से उन्हें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से
सबसे ज़्यादा खतरा है।'' कोर्ट ने महिलाओं के पक्ष में फैसला
सुनाते हुए कहा कि स्विट्जरलैंड की सरकार ने जलवायु परिवर्तन को लेकर उचित कदम
नहीं उठाए हैं जिससे नागरिकों के मानवाधिकारों का हनन हुआ है।
जलवायु परिवर्तन की भयावहता को देखते
हुए यह फैसला काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है जो आगे विश्व के नागरिक समूहों को
अपनी सरकार से जलवायु परिवर्तन को लेकर सवाल करने में सक्षम बनाएगा।
पूरी मानव जाति पर अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है। सवाल धरती को
बचाने से ज़्यादा अब खुद को बचाने का है। कारण यह है कि विकासशील और विकसित देश एक
दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाकर अपनी जिम्मेदारियों से बच रहे हैं जिसका खामियाजा
तुवालू और किरबाती जैसे बेहद छोटे द्वीपीय देशों को चुकाना पड़ रहा है।
पॉप जॉन पॉल द्वितीय कहते हैं, ''ईमानदार प्रबंधन के बिना पृथ्वी अपना
उत्पादन निरंतर जारी नहीं रखेगी। यदि हम भूमि को इस प्रकार से नुकसान पहुंचाते हैं
कि यह भविष्य की पीढ़ियों के उपयोग योग्य न रहे, तो हम यह नहीं कह सकते कि हमें इस भूमि से प्यार है।''
प्रकृति के इस वस्तुकरण ने ऐसा असंतुलन
उत्पन्न किया है जिसका खामियाजा अब मानव खुद भुगतने को विवश है। अनियंत्रित
लालसाओं से उपजी विषमता ने ऐसी तबाही को जन्म दिया कि मनुष्य का अस्तित्व ही खतरे
में पड़ गया है। आज भारत और विश्व के कई शहरों में भूमिगत जल स्तर शून्य की स्थिति
में पहुंच गया है, रेगिस्तानी इलाके बाढ़ की चपेट में हैं, नदियां नालों में तब्दील हो रही हैं, ग्लेशियर पिघल रहे हैं, पहाड़ समतल किए जा रहें हैं और हर कुछ
मिनटों में एक प्रजाति विलुप्त हो रही है, जिससे हम ‘छठवें सामूहिक विनाश’ की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। हर जगह विकास
के नाम पर कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए गए हैं जिसने कई शहरों का भूगोल ही बदल कर
रख दिया है। विकास और पर्यावरण के मध्य के संतुलन पर हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया, जिसकी वजह से जीडीपी और ग्रोथ रेट ही
हमारी सफलता के आधार बन गए। परिणाम आज यह है कि दिल्ली और लाहौर जैसे शहर गैस
चैंबर में तब्दील हो गए हैं और इन शहरों की हवा इतनी जहरीली है की कई सिगरेट के
बराबर का असर आप पर छोड़ती हैं। पानी तो पहले से ही दूषित हो चुका है, इन शहरों में बिना प्यूरीफायर के शुद्ध
पानी की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
कहना ठीक होगा कि कोरोना की तबाही
प्रकृति से छेड़छाड़ का ही नतीजा था। जिसकी दहशत हर मुल्क ने महसूस की। यह एक शुरुआत
भर है। अगर अब भी हमने अपने जीने के तौर-तरीके नहीं बदले तो ऐसी और कई आपदाएं आगे
हमारा इंतजार कर रही होंगी जिससे पूरी मानव सभ्यता का ही विनाश हो जाएगा। वहीं, औद्योगीकरण और उसकी जगह तेजी से बढ़ रहे
शहरीकरण ने ग्रीन हॉउस गैसों के उत्सर्जन में तेजी से बढ़ोतरी की है। जिससे विश्व
के कई शहर रहने लायक नहीं रह गए हैं। हालांकि, ग्रीन हॉउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लिए सरकारें जिस गति से ‘नवीकरणीय ऊर्जा श्रोतों’ को अपना रही हैं, वो जलवायु परिवर्तन को रोकने में नाकाफी
साबित होंगी।
सारगर्भित रूप में कहें तो, पर्यावरण की समस्या को हम वस्तुनिष्ठ
मान बैठे हैं। ठीक वैसे ही, जैसे सुबह का पेपर पढ़ते समय किसी
दुर्घटना या हादसे में मरने वाले लोग हमारे लिए आंकड़े भर होते हैं, बशर्ते उन आंकड़ों में हमारा अपना शामिल
न हो। जबकि सत्य आत्मनिष्ठ होते हैं, उसे जिया जाता है। इसलिए प्रकृति और मानव का संबंध जीवित सत्ता बनाम
जीवित सत्ता जैसा होना चाहिए। जिससे प्रकृति के प्रति संवेदना और करुणा जैसे भाव
लाए जा सकें। और इसके लिए प्रकृति को मिथकों से जोड़ने के साथ उन्हें किस्से कहानियों
में फिर से गढ़ा जाना चाहिए, जिससे प्रकृतिवाद के दर्शन को जिंदा
किया जा सके। साथ ही ‘उपभोक्तावादी शैली’ को छोड़कर अपने जीवन में ‘संधारणीय तौर-तरीकों’ अपनाना होगा तभी सकारात्मक बदलाव लाया
जा सकेगा। और अगर समय रहते नहीं चेते तो प्रकृति की विनाश लीला से हमें कोई नहीं
बचा पाएगा। वैज्ञानिकों के मुताबिक, अगर युद्धस्तर पर प्रयास किए जाएं तो ही हम तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोक पाने में शायद
सक्षम होंगे पर जैसी कोशिशें दिख रही हैं वो निराश करने वाली हैं। यूएन में
पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थेनबर्ग के कहे गए शब्द ''एक-एक व्यक्ति को धरती को बचाने की लड़ाई
लड़नी होगी'' स्थिति की गंभीरता को बयां करती है। यह
विडंबना ही है कि हमारे राजनीतिक मुद्दों में पर्यावरण की अब भी कोई जगह नहीं है, वजह साफ है, ‘लालच’। कहना गलत नहीं होगा कि आज का लोकतंत्र पर्यावरण के लिए खतरा बन गया
है। हसदेव हो या अमेजॉन के जंगल, विकास के नाम पर सरकारें इनके दोहन में पीछे नहीं हट रही हैं। इस
संदर्भ में लियो टॉलस्टॉय के अनुसार, ''प्रसन्नता की प्रथम शर्त यह है कि
मनुष्य और प्रकृति के मध्य जुड़ाव को नहीं तोड़ा जाए।''