सीताजी के स्वयंवर में रामचंद्रजी को लोगों ने अलग-अलग रूप में देखा। जिसकी जैसी भावना थी, प्रभु उसे वैसे ही नज़र आए। राजा रामचंद्रजी को इस तरह देख रहे थे, मानो स्वयं वीररस सामने खड़ा हो। कुटिल राजा रामचंद्रजी को देखकर डर रहे थे। जो राक्षस छल से वहाँ राजा के वेष में बैठे थे, उन्हें रामचंद्रजी प्रत्यक्ष काल के समान दिखाई दिए। उन्हें देखकर नगरवासियों की आँखों को ठंडक मिल रही थी। स्त्रियाँ खुश होकर उन्हें अपनी-अपनी रुचि के अनुसार देख रही थीं, मानो श्रृंगार रस अनुपम मूर्ति धारण करके आ गया हो। विद्वानों को प्रभु विराट रूप में दिखाई दिए और हरिभक्तों को वे इष्टदेव के रूप में दिखाई दिए। जनक समेत रानियाँ उन्हें अपने बच्चे के समान देख रही थीं और योगियों को वे शांत व स्वतः प्रकाशित परम तत्व के रूप में दिख रहे थे।
और सीताजी जिस स्नेह और सुख के भाव से रामचंद्रजी को देख रही थीं, उसे तो कहा ही नहीं जा सकता, 'स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी।।' इस तरह हर व्यक्ति अपने दृष्टिकोण से रामचंद्रजी को देख रहा था, जो इस बात पर निर्भर करता था कि वह खुद कैसा था।