google.com, pub-9828067445459277, DIRECT, f08c47fec0942fa0 सीताजी का निर्णय

सीताजी का निर्णय



सीताजी को कौसल्याजी ने और फिर रामचंद्रजी ने समझाया कि वे वन जाने के बारे में सोचें, क्योंकि वन में दुख ही दुख हैं। यदि प्रेमवश हठ करोगी, तो दुख पाओगी। वहाँ की धूप, जाड़ा, वर्षा और हवा सभी बड़े भयानक हैं। रास्ते में काँटे और कंकड़ हैं। उन पर बिना जूते के पैदल चलना होगा। तुम्हारे पैर कोमल और सुंदर हैं। कैसे चलोगी? वहाँ हिंसक जानवर भी रहते हैं। ज़मीन पर सोना होगा, पेड़ों की छाल के वस्त्र पहनना होगा और कन्द-मूल फल खाना होगा। तुम तो स्वभाव से ही कोमल और डरपोक हो, जबकि वन की भयंकरता से तो साहसी मनुष्य भी डर जाते हैं, क्योंकि वहाँ भीषण सर्प, भयानक पक्षी और राक्षस रहते हैं। तुम वन जाने के योग्य नहीं हो। लेकिन जानकीजी ने कहा कि हे स्वामी, आपके बिना स्वर्ग भी मेरे लिए नरक के समान है। उन्होंने कहा कि जैसे बिना जीव के देह और बिना जल के नदी होती है, वैसे ही बिना पुरुष के स्त्री होती है। प्रभु के साथ मुझे क्या डर है? मैंने आपकी सेवा का वचन दिया है और अगर आप वन जा रहे हैं, तो मैं भी सेवा करने के लिए आपके साथ वन में चलूँगी।
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