राक्षस ब्रह्मर्षि विश्वामित्रजी के यज्ञ में विघ्न डालते थे, जिससे उनकी तपस्या में बाधा आती थी। परेशान होकर वे राजा दशरथ के दरबार में आए। उन्होंने राजा दशरथ से कहा कि उनकी यज्ञ की रक्षा करने और राक्षसों का वधन करने के लिए राजा राम-लक्ष्मण को उनके साथ भेज दें। यह सुनकर दशरथजी का दिल काँप गया और वे हाथ जोड़कर बोले, 'मुझे बुढ़ापे में पुत्र मिले हैं, अतः इन्हें न ले जाएँ। आप मेरी सेना माँगे,खज़ाना माँगें, मेरा शरीर माँगें - मैं सब कुछ ख़ुशी-ख़ुशी दे दूँगा, पर नाम को न माँगें।'
अंत में गुरु वशिष्ठजी ने राजा को समझाया-बुझाया, जिसके बाद दशरथजी ने अपने दोनों पुत्रों राम-लक्ष्मण को विश्वामित्रजी के साथ भेज दिया। बाद में विश्वामित्रजी ने रामचंद्रजी को अस्त्र-शस्त्र विज्ञान की शिक्षा के साथ-साथ ऐसी विद्या भी सिखाई, जिससे भूख-प्य स न लगे और शरीर में अतुलित बल व तेज़ का प्रकाश हो।